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कांग्रेस चुनाव हारने पर ही क्यों देती है EVM को दोष? राहुल की भारत जोड़ो यात्रा जैसे ही खरगे चलाएंगे बैलट पेपर वापसी अभियान

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कांग्रेस हो या विपक्ष की कोई भी पार्टी, चुनाव हारने पर उनका पहला निशाना इलेक्ट्रानिक वोटिक मशीन (EVM) ही बनती है. चुनाव आयोग से विपक्ष की शिकायतें तो शाश्वत हैं. कांग्रेस को अपने मुद्दों और प्रचार के तरीकों में कोई कमी नहीं दिखती. उसे EVM के जरिए आया जनता का फैसला भी स्वीकार नहीं होता. अपनी हार के बाद विपक्षी यह मान कर संतुष्ट होते हैं कि जनता ने तो उन्हें वोट दिया, लेकिन भाजपा ने EVM का खेल कर दिया. हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों में हारने के बाद विपक्ष ने एक बार फिर EVM पर दोष मढ़ा है और इसे भाजपा की चाल बताने का राग अलापना शुरू कर दिया है.

मुद्दे और प्रचार के तरीके पर गौर नही!
पूरे देश में 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जा रहा था तो दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस नेता संविधान पर खतरे का राग अलाप रहे थे. जातीय जनगणना की बात तो कांग्रेस नेताओं की जुबान पर ऐसे चढ़ी है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाने वाला लोकसभा चुनाव हो या निहायत स्थानीय मुद्दों पर होने वाला असेंबली चुनाव, कांग्रेस नेताओं के मुंह से संविधान पर खतरा और जातीय जनगणना का गीत ही गूंजता है. चुनाव परिणाम आने के बाद EVM के दुरुपयोग का आरोप तो आम बात ही है. यूपी-बिहार के उपचुनावों और हरियाणा-महाराष्ट्र में एनडीए की कामयाबी के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बैलट पेपर से चुनाव कराने के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की तरह अभियान चलाने की घोषणा की है.

कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं
आश्चर्य यह है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट पर भी भरोसा नहीं है, जो बार-बार कह रहा है कि चुनाव जीतने पर चुप्पी और हारने पर EVM को दोष देना ठीक नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने EVM की जगह बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका खारिज करते हुए कहा कि चंद्रबाबू नायडू और जगन मोहन रेड्डी जैसे नेता चुनाव हार जाते हैं तो वे EVM को दोषी ठहराते हैं. पर, जब वे जीत जाते हैं तब उन्हें EVM में कोई खराबी नजर नहीं आती. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि EVM की वजह से बूथ कैप्चरिंग और फर्जी मतदान की समस्याओं से निजात मिली है.

कांग्रेस राज में शुरू हुई EVM से वोटिंग
कांग्रेस को अब EVM में खराबी नजर आती है, लेकिन पार्टी वह भूल जाती है कि वोटिंग की यह नायाब प्रक्रिया उसी के शासन काल में शुरू हुई थी. कांग्रेस के शासन काल में पहली बार EVM से मतदान कराया गया था. उसके पहले मतदान कैसे होता था, यह किसी से छिपा नहीं है. कहीं बूथ कैप्चरिंग की शिकायतें आती थीं तो कहीं मतपत्र लूट लिए जाते थे. इस क्रम में खून-खराबा और मार-पीट की घटनाएं भी खूब होती थीं. चुनाव में हिंसा का आलम यह होता था कि चुनाव ड्यूटी लगने की खबर से ही कर्मचारियों के पसीने छूटने लगते थे. पश्चिम बंगाल में तब वामपंथी सरकार थी. चुनाव के दौरान बंगाल में साइंटिफिक रिगिंग होती थी. कतार में खड़े वोटर अपनी बारी का इंतजार करते ही रह जाते और बूथ के भीतर घुसे कुछ लोग दिन भर लोगों के वोट डालते रहते. ईवीएम के जरिए मतदान की व्यवस्था से उस मनहूस दौर से मुक्ति मिली.

जीतने पर कोई EVM को दोष नहीं देता
सुप्रीम कोर्ट ही नहीं, आम आदमी को भी यह सुन कर आश्चर्य होता है कि जब कांग्रेस या विपक्षी पार्टियां जीतती हैं तो उन्हें ईवीएम में कोई खराबी नजर नहीं आती. आरोप लगाने वाले यह भी भूल जाते हैं कि ईवीएम से वोट डालने की प्रक्रिया भाजपा के शासन काल में शुरू नहीं हुई. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो दूसरी बार देश की सत्ता भाजपा के हाथ 2014 में आई. जब तक कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां जीतती रहीं, तब तक ईवीएम पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. 2014 से कांग्रेस ने जब हारना शुरू किया तो उसे ईवीएम में खोट नजर आने लगी. अपनी हार को कांग्रेसी या गैर भाजपा दल भाजपा की चाल बताने में तनिक भी संकोच नहीं करते. इस साल हुए लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि सरकार बनने पर ईवीएम के बेहतर इस्तेमाल पर ध्यान दिया जाएगा. यानी सीधे-सीधे कांग्रेस ने ईवीएम की जगह बैलट पेपर से वोटिंग कराने की बात कही. अब तो खरगे बैलट पेपर से मतदान कराने के लिए अभियान छेड़ने की बात कह रहे हैं.

बैलट पेपर में पैसे और समय की बर्बादी
सेंटर फार मीडिया स्टडीज (CMS) की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 में हुआ देश का आम चुनाव दुनिया में सबसे अधिक खर्चीला था. 2019 में प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में तकरीबन 100 करोड़ रुपए खर्च का अनुमान CMS ने लगाया था. CMS के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो उस साल पड़े हर वोट पर 700 रुपए खर्च हुए. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में यह खर्च काफी अधिक होने का अनुमान है. महंगाई और वोटरों की बढ़ी संख्या के कारण 20 हजार करोड़ खर्च का अनुमान लगाया गया था. CMS प्रमुख कहते हैं कि यदि 2024 में सभी स्तरों पर होने वाले चुनाव के खर्च अनुमान लगाएं तो यह 10 लाख करोड़ रुपए बैठता है. भारत जैसे देश के लिए इतना खर्चीला चुनाव नुकसानदेह है. शायद यही वजह है कि नरेंद्र मोदी की सरकार वन नेशन, वन इलेक्शन की बात पर जोर दे रही है.

बैलट पेपर से मतदान पर विपक्ष का तर्क
विपक्ष बार-बार यह तर्क देता है कि कई देशों में अब भी बैलट पेपर से चुनाव हो रहा है. भारत में ईवीएम से मतदान कराने में गड़बड़ी की आशंका है. विपक्ष इसके लिए जर्मनी, जापान, नीदरलैंड, आयरलैंड और इंग्लैंड जैसे कई देशों के नाम गिनाता है. तर्क देते समय विपक्ष भूल जाता है कि 140 करोड़ आबादी वाले भारत में अभी तकरीबन 97 करोड़ वोटर हैं. जिन देशों का विपक्ष हवाला देता है, उनकी आबादी भारत के मुकाबले कितनी है, यह सबको पता है. भारत में बैलट पेपर से वोटिंग हुई तो मतपत्रों को गिनने में ही पसीने छूट जाएंगे.