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सीएम बन कर भी इन सवालों से परेशान ही रहेंगे देवेंद्र फडणवीस, मिला कांटों भरा ताज

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जैसा अनुमान था, वैसा ही हुआ. एकनाथ शिंदे को आखिरकार सीएम की कुर्सी का त्‍याग करने के लिए राजी होना ही पड़ा. महाराष्‍ट्र की जनता का जो जनादेश आया उसे देखते हुए उनके पास कोई और चारा भी नहीं था. देवेंद्र फडणवीस ने महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर वापसी कर ली है. लेकिन, यह उनके लिए कांटों का ताज साबित होने वाला है. महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा की अभूतपूर्व जीत के बावजूद. जनता ने अगर भाजपा को भरपूर समर्थन दिया है तो अब वह अपनी उम्‍मीदें पूरी होने की उम्‍मीद भी जरूर पालेगी.

दोधारी तलवार पर चलना होगा फडणवीस को
बीजेपी के विधायकों की अभूतपूर्व संख्‍या के चलते फडणवीस कुर्सी पर टिकाऊ बने रह सकते हैं, लेकिन सरकार के मुखिया के तौर पर उन्‍हें हमेशा दोधारी तलवार पर ही चलते रहना होगा. उन्‍हें यह कुर्सी ऐसे समय मिली है जब राज्‍य की माली हालत बहुत अच्‍छी नहीं है. एकनाथ शिंदे के नेतृत्‍व वाली महायुती सरकार ने चुनाव से महज कुछ महीने पहले लाड़की बहिन योजना शुरू कर अर्थव्‍यवस्‍था पर दबाव बहुत बढ़ा दिया है. पहले से चल रही लोकलुभावन योजनाओं के अलावा चुनाव के दौरान भी कई नए ऐसे वादे कर लिए गए हैं. इनके लिए पैसा कहां से आएगा? अगर कहीं से आ भी गया तो विकास के काम पर खर्च के लिए पैसे कहां से आएंगे? ये सवाल फडणवीस को चैन नहीं लेने देंगे.

पैसा कहां से आएगा? परेशान करता रहेगा यह सवाल
2023-24 में महाराष्‍ट्र सरकार का कर्ज 7.11 लाख करोड़ रुपये से भी ज्‍यादा (आर्थि‍क सर्वे के मुताबिक) हो गया था. लाड़की बहिन योजना के चलते सरकार पर 90000 करोड़ रुपये सालाना का बोझ बढ़ गया है. इस योजना के तहत मिलने वाली रकम 1500 रुपये से बढ़ा कर 2100 रुपये प्रति माह करने, किसानों का कर्ज माफ किए जाने जैसे चुनावी वादों को पूरा किया तो खर्च दो लाख करोड़ रुपये तक भी जा सकता है. यह अनुमान सरकार का ही है. ऐसे में फडणवीस के पास सीमित संसाधनों में चुनावी वादे पूरे करने के साथ विकास की उम्‍मीदों को भी पूरा करने की चुनौती रहेगी. जीडीपी, प्रति व्‍यक्ति आय के मामले में देश में महाराष्‍ट्र की बादशाहत पिछले कुछ सालों में हिली है. इसे वापस लाना फडणवीस की बड़ी चुनौतियों में शामिल होगा.

आरक्षण का मसला भी है बड़ा
आर्थ‍िक के साथ-साथ कई दूसरे मोर्चों पर भी फडणवीस को जूझना होगा. एक ऐसा ही मोर्चा आरक्षण का है. पिछली सरकार के कार्यकाल में भी मराठा आरक्षण का मुद्दा गरमाया हुआ था. यह बात अलग है कि इस विवाद के बावजूद चुनाव में भाजपा और महायुती को जबरदस्‍त वोट व सीटें मिली हैं. फिर भी सरकार इस मांग की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकती.

राजनीतिक मोर्चे पर फडणवीस के सामने फौरी तौर पर विभाग बंटवारे की चुनौती रहेगी, लेकिन गठबंधन के साथ‍ियों के साथ सामंजस्‍य बनाए रखने की चुनौती हमेशा रहेगी. इस चुनौती से निपटने में भाजपा के विधायकों की भारी संख्‍या (132) उनकी मदद करेगी, लेकिन एक हद तक ही. एकनाथ शिंदे ने महत्‍वाकांक्षा के चलते ही उद्धव ठाकरे से बगावत की और भाजपा व एनसीपी (अजित पवार) के साथ सरकार बना कर वह मुख्‍यमंत्री बने थे. अभी उन्‍होंने मजबूरी में अपनी महत्‍वाकांक्षा दबा कर सब कुछ ठीक होने का संकेत दिया है, लेकिन मन से वह फडणवीस को कब तक और कितना सहयोग दे पाएंगे, यह कहा नहीं जा सकता.

अजीत पवार भी राज्‍य के घाघ नेता हैं. छठी बार उप मुख्‍यमंत्री बने हैं. चुनावी प्रदर्शन के दम पर वह खुद को एनसीपी का वारिस और मालिक प्रमाणित कर चुके हैं. पिछली सरकार में वह फडणवीस के समकक्ष (उप मुख्‍यमंत्री) थे, लेकिन इस बार वह उनके डिप्‍टी रहेंगे. ऐसे में उनके आत्‍म अभिमान को ठेस नहीं पहुंचे, फडणवीस को हमेशा इसका ख्‍याल भी रखना पड़ेगा.