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‘राज्यपालों को किसी काम को करने या न करने के लिए कहा जाना शर्मनाक’, जस्टिस नागरत्‍ना बोलीं- संविधान के अनुसार…

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राज्‍यपाल और राज्‍य सरकार के बीच तनातनी की स्थिति पैदा होना कोई नई बात नहीं है. हाल के दिनों में कुछ प्रदेशों में राजभवन और सरकार के बीच टकराव की स्थिति इस हद तक बढ़ गई कि मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया. अब देश की सर्वोच्‍च संवैधानिक अदालत की एक वरिष्‍ठ जज ने राज्‍यपालों की भूमिका पर अहम टिप्‍पणी की है. उच्‍चतम न्‍यायालय की जज जस्टिस बीवी नागरत्‍ना ने कहा कि राज्‍यपालों को कुछ करने या न करने के लिए कहना काफी शर्मनाक है. गवर्नर को संविधान के प्रावधानों के अनुसार अपने संवैधानिक कर्तव्‍यों का निर्वहन करना चाहिए.

उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश बीवी नागरत्ना ने शनिवार को पंजाब के राज्यपाल से जुड़े मामले का जिक्र करते हुए निर्वाचित विधायिकाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपालों द्वारा अनिश्चित काल के लिए ठंडे बस्ते में डाले जाने के प्रति आगाह किया. यहां एनएएलएसएआर विधि विश्वविद्यालय में आयोजित ‘न्यायालय एवं संविधान सम्मेलन’ के पांचवें संस्करण के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति नागरत्ना ने महाराष्ट्र विधानसभा मामले को राज्यपाल के अपने अधिकारों से आगे बढ़ने का एक और उदाहरण बताया, जहां सदन में शक्ति परीक्षण की घोषणा करने के लिए राज्यपाल के पास पर्याप्त सामग्री का अभाव था.

‘संविधान के अनुसार कर्तव्‍यों का निर्वहन हो’
जस्टिस बीवी नागरत्‍ना ने कहा, ‘किसी राज्य के राज्यपाल के कार्यों या चूक को संवैधानिक अदालतों के समक्ष विचार के लिए लाना संविधान के तहत एक स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है.’ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने आगे कहा, ‘मुझे लगता है कि मुझे अपील करनी चाहिए कि राज्यपाल का कार्यालय (हालांकि इसे राज्यपाल पद कहा जाता है) और गवर्नर का पद एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद है. राज्यपालों को संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए, ताकि इस प्रकार की मुकदमेबाजी कम हो सके.’

‘…काफी शर्मनाक’
सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस नागरत्‍ना ने आगे कहा कि राज्यपालों को किसी काम को करने या न करने के लिए कहा जाना काफी ‘शर्मनाक’ है. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने नोटबंदी मामले पर अपनी असहमति वाला निर्णय दिया था. उन्होंने कहा कि उन्हें केंद्र सरकार के इस कदम के प्रति असहमति जतानी पड़ी, क्योंकि 2016 में जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी, तब 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोट कुल प्रचलन वाली मुद्रा का 86 प्रतिशत थे और नोटबंदी के बाद इसमें से 98 प्रतिशत वापस आ गए.

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