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पड़की-परेवना

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पड़की-परेवना
पड़की-परेवना

– परमानंद वर्मा
नानपन के बाते। गांव मं रेहेन तब खेत-खार, ढोड़गी नरवा, नदिया के बस खाली किंजरई राहय। झट कोनो पेड़ मं चिरई-चुरगुन दीख जाय ते बस बेंदरा असन ये डारा ले ओ डारा मं फलांग मारे के सिवा अउ कांही नइ करेन। एक घौं एक ठीन ढोड़गा मं मेचका पकड़त-पकड़त एक ठन सांप दीखगे। ओला मारे ले डंडा उठायेन ते ओहर अइसन दउड़ाइस नहीं ते बस भागते-भागत घर आगेन। घर मं बतायेन तब बुढ़वा बबा हर कहिथे-चोट्टा बुज्जरी हो रे जिये खाय ले नइ आय हव का, सांप, बिच्छी संग उतीअइल करिहौ तब ओहर तुमन ल देखत रइही का? बस्ती भीतर खेले-कूदे ले छोड़ दीन वहा डीह मं मरे ले जाथव। `बंदर-बालक एक समाना` केहे गेहे तउन बात हर मोला ओ दिन सही लागिस जउन दिन मोला कोन जनी कोन कुकुर काट दे रिहिसे ते अमली पेड़ में चढ़ परेंव। तीर-तार मं ओ दिन कोनो मनखे रोवइया नइ रिहिन हे। बस जइसने मैं डारा ल पकड़त रेहेंव मोला अइसे लागिस जना-मना कोनो जबरदस्ती धक्का मार के पेड़ ले गिरा दिस बाचगेंव ओ दिन नइ ते मोर हाड़ा-गोड़ा टूट जाय रहितिस नइ ते फेर सीधा ऊपर कोती सदा दिन बर रेंग दे रहितेंव।
सुने रेहेंव, ये पेड़ मं परेतीन रहिथे कइके ।अइसे ओ बगीचा मं मैं कई घौं गेंव, कतको पेड़ चढ़ेंव फेर न कभू परेत देखेंव न परेतीन। हां अतका जरूर देखे अउ सुने हौं के इहां कतको झन पेड़ ले गिर गेहे, कतको झन के हाथ-गोड़ घला टूटगे अउ कतको झन ल भूत-परेत घला धरलिन जौंन ल बइगा बुलवाके झड़वइन-फुकवइन तहां ले बने होगे। भगवान मोर ऊपर ओ दिन जब्बर मया करिस के मैं बाल-बाल बाचगेंव। न मोर परान पखेरू उड़िस न तो हाड़ा-गोड़ा टूटिस, हां गिरेंव तब थोकन खरोंच जरूर आगे रिहिसे। बगीचा ले दउड़े-दउड़े सीधा घरे आयेंव। दाई ल बतायेंव तहां ले गोंदली, लहसून के पोतनी बना के गरम-गरम अइसे सेकिस ते लागे रहिसे तौंन मेर हर मिटागे तइसे लागिस। खरोंच के दरद हर चार-पांच दिन ले बने रिहिसे। तभो ले ओ बगीचा कोती जाय बर मैं नइ छोड़ेंव। आजो गांव जाथौं तब ओती किंजरे असन जरूर जाथौं। संझा-बिहनिया बहुत तांक-झांक करथौं फेर ओ मेर कभू न भूत दिखिस अउ न परेत न परेतीन।
माघ-फागुन के महीना आवय तहां ले आमा खाये के लालच मं हमर संगवारी मन के जीभ हर दूदी बीता बाढ़ जाय। चार-पांच संगवारी देखन तहां ले चोट्टामन कस कलेचुप बगीचा मं खुसरजन। दू झन पेड़ मं चढ़हन, दू झन बिनइया जइसने कोनो आवय चाहे ओहर रखवार भले मत होय, अवइया-जवइया मन के आरो ओहर बिनइया मन ल देवय। अउ कहूं रखवार आय के खबर होय, तब तो बस बिजली कस काम होवय। झट पेड़ ले कूद जान अउ जतका धरत बनय तउन ला धरन अउ बगीचा ले भागना इही ये टोली के काम राहय। ओ बगीचा के जतका उजाड़ बेंदरा अउ चिरई चुरगुन मन नइ करिन होही ततका तो ये टोली के बड़े-बड़े बेंदरा मन करके रख दे रिहिन हे। रखवार कतको पकड़े के कोशिश करिस फेर ये लाली-लाली मुंह के बड़े-बड़े बेंदरा ल कभू अपन फांदा मं फांस नइ सकिस।
अइसे हमन ल रखवार हर पकड़े के बहुत उदीम करिस फेर एको घौं पार नइ पाइस। संझा-बिहनिया ठेही मारत आवय, कभू कलेचुप घला आ जाय। कोन राते, कोन बिकाले ओकर करा कांही चिन्हारी नइ रिहिसे। जइसने रखवार चतुरा वइसने आमा चोर मन घलो चतुरा। एक घौं तो अधरतिहा ये चोर मन सपड़ मं आवत आवत बाचगे। असल मं होइस का, ओ दिन गांव मं नाचा होवत राहय तेला देखे बर ओ रखवार घला गे राहय। मोला संगवारी मन कहिथे-दसरथ, अब चलव न आमा टोरे बर इही तो मउका हे। मैं पूछतेंव येकर पहिली ओहर बताथे, अरे रखवार हर तो नाचा देखे ले गे हे। मैं फिरंता, मेहतर, चमरू, नकछेदन ल घला बता डरेंव हौं। ओमन वही दे लीम तरी खड़े हे।
रखवार येती नाचा देखत हे, हमन आमा टोर-टोर के झोला मं धरत जाथन। कोन जनी कतका बेर रखवार दनदना के शेर बरोबर आगे अउ दूरिहे ले कहिथे- गजब दिन मं सप्पड़ मं आय हौ रे चोर सारे हो, आज तुमन ल बजेड़े बिगन नइ छोड़व। बस रखवार के अतका भाखा ल ओरखना होइसे ते जउन जिंहें रिहिसे विहें ले जी-परान लेके अइसे हिरना बरोबर कूदत-नाचत, फांदत भागे हन के अपन-अपन घरे मं जाके खुसरेन तभे हमर मन के जीव मं जीव अइस। कतको झन के तो कोहनी माड़ी फूटगे रिहिसे। बिहनिया सबो झन जब एक तीर जुरियाथन तब अपन-अपन हाथ-गोड़ ल एक दूसर ल देखाथन| तब ओ रखवार ल गारी देवत, अच्छा चकमा देन सारे रखवार ल काहत सब हांस परथन।
वाजिब मं बचपन के बात कभू भूले नइ भुलावय। जतके सुरता करबे ओतके मन भर जथे, गुदगुदी आथे, हांसी आथे। मन कहिथे-जइसे साल में किंजर फिरके बादर आ जथे, फल-फूल आ जथे वइसने कहूं ये बचपन कोनो कोती ले घूमत फिरत आ जातिस, तब ये जिनगी के कतेक मजा आतिस। फेर अइसन मनखे के भाग में कहां लिखाय हे। जउन अवस्था ले एक घौं ओहर गुजरगे तउन अब ओला दुबारा कभू देखे ले नइ मिलय, हां ओला सपना मं देख सकथन। वइसने बचपन के एक ठन करतब मोला रही-रही के सुरता आथे। सुरता का जब ओला नजर भर देखथौं तब मन हर भर जाथे अउ आंखी कोती ल तरर..तरर.. आंसू घला आ जाथे। रूंधे गला मं कही घला परथौं कहां गये रे मोर पड़की परेवना। हां, मोर करा एक ठन पड़की-परेवना रिहिसे। ओला बहुत पिंयार करके पालत रेहेंव। दाना-पानी रोज खवावत-पियावत रेहेंव। गांव मं रहिके संगवारी मन संग महूं उतीअइल होगे रेहेंव। असाढ़ के महीना तो नइ लगे रिहिसे, फेर पानी एक-दू घौं अवस के गिरगे रिहिसे। बस हमर बानर दल के काम राहय एती ओती खेत-खार, नदी-नरवा नइते ढोड़गी-ढोड़गा किंजरना| कोनो कांही पकड़त हे तब कोनो कांही। पेड़ मं बेंदरा असन छलांग पारना तो लगथे जइसे जनम-जात सीखके आगे रेहेन। कोनो कउआं, कबूतर, सलहई नइ ते पड़की चिरई पकड़थें तब कोनो ओकर गार (अंडा) ल खोंधरा ले मार देंवय। सबो झन तहां ले ओकर चिला बनाके खान। कउआं गार खाय ले आंखी नइ आवय कहिके सुनें रेहेन तब महूं हर कई घौं ओकर चिला खायेंव। वाजिब मं गऊकीन, ईमान से काहथौं आंखी पीरा काये तौंन ल मैं आज तक नइ जानेंव।
मोला बहुत करलई अउ दुख ओ दिन लागे रिहिसे जउन दिन पड़की ल खेत के बंभरी (बबुल) पेड़ ले निकाल के लाय रेहेंव। ओला धरेंव ततके मं गुजगुज ले लागिस फेर का करबे, लइका सुभाव के सेती ओला पकड़े के मोह ल नइ छोड़ सकेंव। गार फोर के जनमे ओला तीन-चार दिन ले जादा नइ होय रिहिसे। बने ढंग के डेना मं पांख घला नइ उगे रिहिसे। पांच-छै ठन रिहिसे तेमा के दू ठन ल टूप ले धरेंव अउ घर ले आयेंव। पुट्ठा के खोंधरा बना के ओकर चारा-पानी के सब बेवस्था कर देंव। दाई हर दुसरइया दिन देख परिस तब बखानत कहिथे- कहां के चलिख नइ तो, काबर लाये होबे येला, मार डारबे का? जा येला पहुंचा के आव। ओ बखानते रिहिसे अउ मैं बाहिर भागगेंव, संझाकन फेर ओमन ला चारा
चुगायेंव, पानी पिलायेंव। बिहनिया इसकूल ले आके फेर खवाहूं- पियाहूं कइके देखथौं तब दूनों पड़की मर जाय रहिथे। मोर जीव ओतके बेर धक्क ले करिसे। देख तो देख ओकर दाई-ददा करा ले मैं जबरन छोड़ा के ले आनेव अउ मैं येमन ल बचा घला नइ सकेंव। कतेक जाड़ मैं पाप कर डरेंव ना! मोर मन रोवासी भइगे। मन कहिथे, अरे चंडाल! तोला एक दिन पहिली दाई घला समझाइस तेकरो कहना नइ माने। मन बहुत रोइस ओ दिन..बने ढंग ले खाना घला नइ खवइस ओकर दुख मं। गऊकिन काहथौं-मैं विही दिन ले अपन सब उतीअइलपना ल छोड़ देंव।

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