बस्तर संभाग के जंगलों के अंदर रहनेवाले आदिवासी किस तरह नक्सलियों से दहशतजदा हैं, इसकी एक बानगी यह है कि अंदरूनी गांवों में पिछले 10 महीने से अलग-अलग मांगों के लिए चौबीसों घंटे धरना दे रहे हैं। इनकी मांगें वही हैं, जो नक्सली चाहते हैं जैसे ग्राम सभा की अनुमति के बिना पुलिस कैंप नहीं खोले जाएं, सड़कें नहीं बनें। भास्कर टीम इन बीहड़ इलाकों में पहुंची तो लोगों ने दबी जुबान में स्वीकार किया कि धरना नहीं देंगे तो नक्सली जुर्माना लगाएंगे, दंड भी देंगे।
9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर नारायणपुर से 20 किमी दूर घने जंगलों में नक्सल प्रभावित इलाके में करीब 10 हजार लोग इन्हीं मांगों का लेकर फिर जुटने वाले हैं। लेकिन पुलिस को ऐसे किसी धरने की खबर नहीं है। घने जंगलों में लगातार धरना क्यों, यह जानने के लिए भास्कर वहां पहुंचा। धरने में हर उम्र के लोग मिले जिनमें बच्चे, युवा, महिला, पुरुष, बुजुर्ग शामिल हैं। उन्होंने कहा-स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी और अन्य सुविधाएं चाहते हैं, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन न हो। उनसे पूछा गया कि क्या धरने के लिए नक्सलियों के दबाव है? तो सब चुप हो गए।
काफी समझाने-बुझाने पर उन्होंने दबी जुबान में कहा- धरना नहीं देंगे तो अंदर वाले (नक्सली) जुर्माना लगाएंगे, मुखबिर होने का आरोप लगा देंगे। अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए ऐसा करना पड़ रहा है। दरअसल धरने में बुनियादी सुविधाओं का जिक्र तो है, लेकिन तीन और मांगें हैं जो शक बढ़ाती हैं। इनमें पहली-नरसंहार बंद हो, दूसरी-आदिवासियों को नक्सली कहना बंद हो और तीसरी-जल, जंगल, जमीन को कॉर्पोरेट, नेता और पुलिस के हवाले करना बंद किया जाए।
सिस्टम बना रखा है धरने का कम से कम पांच, अधिकतम 20 गांव के बीच एक कमेटी बनाई गई। एक प्रमुख गांव का चयन किया गया। हर गांव से 2-2 लोग हफ्तेभर धरना देते हैं। वे धरना स्थल पर चौबीसों घंटे रहते हैं, यही पकाते-खाते और सोते हैं। धरने का कोई प्रचार नहीं है। जिस गांव का नंबर है, अगर वहां से 2 लोग नहीं आए तो पूरे गांव पर जुर्माना या दंड भी लगाया दिया जाता है।
प्रभाव कम होने के डर से
पड़ताल के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि जिन इलाकों में पुलिस कैंप खुल रहे हैं, वे इलाकों में नक्सल प्रभाव कम हो रहा है। वारदातों में कमी आई है, नक्सलियों का मूवमेंट भी कम हुआ है। बातचीत में साफ हुआ कि जितने ज्यादा कैंप खुलेंगे, वहां के ग्रामीण नक्सलियों के हाथों से निकल जाएंगे। नक्सलियों को यही डर है, क्योंकि ग्रामीण आदिवासी उनकी ताकत हैं।
धरना पहुंचविहीन क्षेत्रों में
नारायणपुर से 25 किमी अंदर इलकभट्टी। 25 किमी अंदर तोयामेटा। 36 किमी अंदर ढोंडरीबेड़ा। 52 किमी अंदर मोड़ोहनार। 70 किमी अंदर ओरछा। तोयामेटा में रोजाना 300 आदिवासी धरना पर बैठते हैं। 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के दिन यहां 10 हजार से अधिक आदिवासी जुटने जा रहे हैं। इस दिन पूरे आंदोलन को आगे बढ़ने की रणनीति बनेगी।
एक्सपर्ट व्यू – नक्सलियों का समर्थन
अंदरूनी गांवों में धरना नक्सलियों के समर्थन से है, प्रमोटेड है। अगर कैंप खुले तो ग्रामीणों में दहशत खत्म हो जाएगी, नक्सली जानते हैं। रणनीति दृष्टिकोण से देखें तो यह चुनावी वर्ष है। नक्सली सक्रियता दिखाना चाहते हैं। जिस प्रकार लोकतंत्र में नेता बैठकें करते हैं, दौरा करते हैं, प्रदर्शन करते हैं, नक्सली भी वही कर रहे हैं।